Thursday, 23 July 2020

श्री हनुमान- चालीसा



दोहा 

श्री गुरु चरन -सरोज -रज  निज -मन -मुकुर सुधारि। 
बरनउँ रघुबर -बिमल -जस जो दायक फल चारि।। 

अर्थ - श्री गुरु देव के चरण कमलो की पराग धूलि से अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ करके रघुकुल में श्रेष्ठ श्री राम  के यश का वर्णन कर रहा हूँ ,जो चारो फल (धर्म ,ज्ञान ,योग ,जप )देने वाला हैं। 

बुद्धि हीन तनु जानि कै सुमिरौं पवन कुमार। 
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेश बिकार।। 

अर्थ -अपने शरीर को बुद्धि से हीन जानकर मै पवनपुत्र हनुमान जी का स्मरण करता हूँ ,हे प्रभु आप मुझे ,बल बुद्धि ,तथा विद्या प्रदान करे तथा क्लेश एवं विकारो को समाप्त कर दे। 

चौपाई 

जय हनुमान ज्ञान -गुण -सागर। 
जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।१। 

अर्थ -समस्त ज्ञान एवं गुणों के सागर (भंडार ) श्री हनुमान जी ,आपकी जय हो ! हे तीनों लोको को प्रकाशित करने वाले  प्रसिद्ध वानरों में श्रेष्ठ आप की जय हो !

राम-दूत अतुलित-बल -धामा। 
अंजनिपुत्र -पवनसुत -नामा।२। 

अर्थ -आप श्री राम के विश्वस्त दूत तथा अतुलित बल के आश्रय है तथा आप अंजनी पुत्र एवं पवन पुत्र के नाम से प्रसिद्ध है। 

महाबीर  बिक्रम बजरंगी। 
कुमति निवार सुमति के संगी।३।

अर्थ -आप महावीर तथा आप विक्रम (समुद्र को लाँघने )वाले हो। आपका शरीर बज्र के समान है। आप कुमति (कुबुद्धि ) को नष्ट करने वाले एवं आप सुमति (बुद्धि )संगी (मित्र ) हैं।    

कंचन -बरन बिराज सुबेसा। 
    कानन कुंडल कुंचित केसा।४।    

अर्थ -आपका वर्ण स्वर्ण  समान तेज से पूर्ण है तथा आप सुन्दर वेष में विराज रहे है ,आपके कान का कुण्डन चमक रहा हैं तथा आपके केश (बाल)घुँघराले हैं। 

हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजै। 
काँधे मूँज -जनेऊ छाजै।५। 

अर्थ -आपके बज्र हाथ में में श्री राम का ध्वज विराजमान है एवं काँधे पर मूँज का जनेऊ (यज्ञोपवीत )सुशोभित हैं। 

शंकर स्वयं (सुमन )केसरी नंदन। 
तेज प्रताप महा जग -बंदन।६। 

अर्थ -आप केसरी के नंदन (पुत्र) साक्षात् शिव जी हैं आपका तेज एवं प्रताप सम्पूर्ण जगत के द्वारा वन्दित है। 

बिद्यावान गुणी अति चातुर। 
राम -काज करिबे को आतुर।७। 

अर्थ -आप समस्त विद्या के भण्डार हैं एवं समस्त गुण आप में विद्यमान हैं आप अत्यंत चतुर हैं और प्रभु राम के कार्यो के लिए उत्सुक रहते हैं। 

प्रभु -चरित्र सुनिबे को रसिया। 
राम -लखन -सीता मन बसिया।८। 

अर्थ -आप प्रभु श्री राम के चरित्र को सुनने के अद्वितीय रसिक है ,एवं आपके मन मंदिर में श्री राम ,लक्ष्मण ,माता सीता निवास करते है। 

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। 
बिकट रूप धरि लंक जरावा।९। 

अर्थ -आपने सूक्ष्म रूप धारण कर माता सीता को दिखाया और भयंकर रूप धारण कर लंका को जलाया  (भस्म) 

भीम रूप धरि असुर सँहारे। 
    रामचंद्र के काज सँवारे।१०। 

अर्थ -आपने भीम (भयभीत ) रूप से असुरो का संहार किया एवं श्री राम के कार्य को संभाला और सँवारा। 

लाय सँजीवनि लखन जियाये। 
 श्री रघुबीर हरषि उर लाये।११। 

अर्थ -आप ने सँजीवनि लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया और प्रभु राम प्रसन्न होकर  आपको अपने ह्रदय से लगाया 

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। 
तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई। १२। 

अर्थ -रघुपति श्री राम ने आपकी बहुत प्रशंसा की और कहा की तुम मुझे भाई भरत के समान प्रिय हो 

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। 
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं। १३। 

अर्थ -हजारो मुख वाले शेष आपका यश गाते है  ऐसा कहकर श्री पति अर्थात श्री राम जी आपको गले से लगाते हैं 

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। 
नारद सारद सहित अहीसा। १४। 

अर्थ -आपका यश सनकादिक (सनक ,सनन्दन ,सनातन ,सनत्कुमार )ब्रह्मादि ,देवगण ,और नारद ,सरस्वती के सहित अहीश्वर (विष्णु व् शंकर ) भी गाते हैं 

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। 
कबि कोबिद कहि सकैं कहाँ ते। १५। 

अर्थ -यम कुबेर एवं दिगपाल वे भी आपका यश गाते है और इसयश को सामान्य कवि एवं विद्वान् कहाँ से कह सकते हैं 

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। 
राम मिलाय राज -पद दीन्हा। १६। 

अर्थ -आपने सुग्रीव का महान उपकार किया तथा उन्हें श्री राम से मिलाकर उनको राज पद प्राप्त ( साम्राज्य )दिया 

तुम्हरो मन्त्र बिभीषन माना। 
लंकेश्वर भए सब जग जाना।१७। 

अर्थ -आपके मन्त्र को विभीषण ने स्वीकारा और परिणाम स्वरूप वह लंका के स्वामी बन गए। यह सब संसार जानता हैं 

जुग सहस्र जोजन पर भानू। 
लील्यो ताहि मधुर फल जानू। १८। 

अर्थ -हजारो योजन दूर आपने सूर्य को एक मधुर फल   जानकर निगल लिया। 

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। 
जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं। १९। 

अर्थ -आप रामनामाङ्कित मुद्रिका मुख में लेकर समुद्र लाँघ गए ,इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैं. 

दुर्गम काज जगत के जे ते। 
सुगम अनुग्रह तुम्हरे ते ते। २०। 

अर्थ -संसार के जो भी  कठिन से कठिन कार्य  है वो सब आपकी कृपा  सरल हो जाते है। 

राम -दुआरे तुम रखवारे। 
होत न आज्ञा बिनु पैसारे। २१। 

अर्थ -आप श्रीराम के राजद्वार के रक्षक है और आपकी आज्ञा के बिना कोई भी राम दरबार में प्रवेश नहीं कर सकता 

सब सुख लहै  तुम्हारी सरना। 
तुम रक्षक काहू को डर  ना। २२। 

अर्थ -आपके शरण में आने से समस्त सुख प्राप्त होते हैं। अतः जिसके रक्षक आप हो उसे किस बात का डर एवं भय। 

आपन तेज सम्हारो आपे। 
तीनों लोक हाँक ते काँपै। २३। 

अर्थ -आप अपने तेज को स्मरण कर लेते हैं,तब आप  हाँक से तीनों लोक काँप उठता हैं 

भूत पिसाच निकट नहिं आवै। 
महाबीर जब नाम सुनावै। २४। 

अर्थ - भूत ,पिशाच आदि उनके निकट नहीं आते जो महाबीर नाम को जपते हैं। 

नासै रोग हरै सब पीरा। 
जपत निरंतर हनुमत बीरा। २५। 

अर्थ- आपके नामो का जो जप करता है उसके सभी रोग ,व्याधि और समस्त दुःखो को आप हर लेते हैं 

संकट ते हनुमान छुड़ावै। 
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै। २६। 

अर्थ -जो मन कर्म ,वचन से एकाग्र कर आपका ध्यान करता हैं उन्हें आप समस्त संकटो से मुक्त करते हैं 

सब पर राम तपस्वी राजा। 
तिन के काज सकल तुम साजा। २७। 

अर्थ- श्री राम  आप तपस्वी  राजाधिराज हो और उनके समूर्ण कार्यो को आप ही संपन्न करते हैं। 

और मनोरथ जो कोई लावै। 
सोइ अमित जीवन फल पावै। २८। 

अर्थ -और जो भी आपके समक्ष कोई मनोरथ लेकर आता हैं उस मनोरथ का अपने इसी जीवन में असीम फल पाता हैं। 

चारों जुग परताप तुम्हारा। 
है परसिद्ध जगत उजियारा। २९। 

अर्थ -आपका प्रताप चारो युग (सतयुग ,त्रेता द्वापर  कलयुग )  में है ,यह उजाला संसार में प्रसिद्ध है 

साधु संत के तुम रखवारे। 
असुर निकंदन राम दुलारे। ३०। 

अर्थ -आप साधु तथा संतो के रक्षक हैं ,आप असुरो को नष्ट करने वाले एवं श्री राम के दुलारे हैं 

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। 
अस बर दीन जानकी माता। ३१। 

अर्थ- आप अष्ट सिद्धियों (अणिमा ,गरिमा ,महिमा ,लघिमा ,प्राप्ति ,प्राकाम्य ,ईशित्व और वशित्व ) नौ निधियों (महापद्म ,पद्म ,शंख मकर ,कच्छप ,मुकुन्द , कुंद ,नील ,और खर्व ) को देने वाले हैं। माता जानकी ने आपको ऐसा वरदान दिया हैं। 

राम रसायन तुम्हरे पासा। 
सदा रहो रघुपति के दासा। ३२। 

अर्थ -आपके पास राम नाम का रसायन है जिससे कभी भी आप अविमुक्त नहीं होते और आप सदैव राम के दास बने रहने में सुख प्राप्त करते हैं 

तुम्हरे भजन राम को पावै। 
जनम जनम के दुःख बिसरावै। ३३। 

अर्थ -आप के भजन से साधक प्रभु राम को प्राप्त करता हैं और अपने अनेक जन्मो के दुःख को भुला जाता हैं 

अंत काल रघुबर पुर जाई। 
 जहाँ जन्म हरि -भक्त कहाई। ३४। 

अर्थ - जो प्रभु का गान करता है वह अंत काल में (मृत्यु समय ) आपके शरण में होता है और जब भी जहाँ भी जन्म लेता है वह हरि भक्त ही कहलाता हैं 

और देवता चित्त न धरई। 
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई। ३५। 

अर्थ - जो हनुमान जी की सेवा करता है उसका चित्त निर्मल होता है और वह किसी अन्य देवता को भी नहीं धारण करता 

संकट कटै मिटै सब पीरा। 
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। ३६। 

अर्थ - जो महावीर हनुमान महाराज का स्मरण करता है उसके समस्त संकट कट जाते है एवं पिड़ाए मिट जाती है  

जै जै जै हनुमान गोसाई। 
कृपा करहु गुरु देव की नाईं। ३७। 

अर्थ -आपकी की जय हो !जय हो !जय हो !आप गुरुदेव की भांति कृपा करे। 

जो सात बार पाठ कर कोई। 
छूटहिं बंदि महा सुख होई। ३८। 

अर्थ -जो कोई हनुमान चालीसा का १०० बार पाठ करता है  सभी बंधनो से मुक्त होता है और उसे महासुख प्राप्त होता है 

जो यह पढ़ै हनुमान चलीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा। ३९। 

अर्थ -जो यह हनुमान चालीसा पढ़ता हैं वह सिद्ध एवं शिव के समान हो जाता हैं 

तुलसीदास सदा हरि -चेरा। 
कीजै नाथ ह्रदय महँ डेरा। ४०। 

पवन तनय संकट हरण मंगल मूर्ती रूप। 
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप।। 

अर्थ -मै तुलसी दास निरंतर आपका (हनुमान जी ) दास हूँ और आप मेरे ह्रदय में श्री राम लक्षण सीता सहित निवास करे। 

सियाबलराम चंद्र की जय ,पवनसुत हनुमान की जय 



मार्कण्डेय महादेव

  
                          




                 
   

                     


                   



                    


                  


              


                  
       



       




            





Friday, 17 July 2020

संस्कार



सोलह संस्कार और उनका महत्त्व 
वर्तमान समय में मुख्यतः सोलह संस्कारों को ही मान्यता प्राप्त हैं ।लेकिन गौतम स्मृति में 40 संस्कारो को तथा महर्षि अंगिरा ने ऋग्वेद में 25 संस्कार ,महर्षि वेदव्यास ने व्यासस्मृति में 16 और मनु ने मनुस्मृति में 14 संस्कारो की बात की हैं ।
 
संस्कार मनुष्य के मन के विकार नष्ट करते है और व्यक्तित्व पर अद्वितीय प्रभाव डालता है हिन्दू धर्म में जीवन के विभिन्न अवसरों पर विविध संस्कारो का प्रावधान हैं  यहाँ कहा जाता है कि जन्म से सभी शूद्र होते है संस्कार ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता हैं। 
                                    
                                   जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद द्विज उच्चते 
सोलह संस्कारो के नाम और उनका महत्त्व 
    1.  गर्भाधान संस्कार                                                                                                                                          दांपत्य जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य हैं श्रेष्ठ गुणों वाली स्वस्थ ,चरित्रवान संतान प्राप्त करना | संतान प्राप्त करने के लिए पति पत्नी को विचारपूर्वक इस कर्म में प्रवृत होना पड़ता हैं | 
                 2. पुंसवन संस्कार                                                                                                                                                               पुंसवन संस्कार गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए किया जाता हैं  कहते है की पुंसवन संस्कार का मुख्य उद्देश्य पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ एवं सुन्दर संतान की प्राप्ति। 
 जब तीन माह का गर्भ हो तो लगातार नौ दिन तक सुबह या रात्रि में सोते समय स्त्री पूर्ण श्रद्धा के साथ प्रार्थना करे तो अवश्य मनोवांछित संतान की प्राप्ति होती है। 
                 3 .सीमंतोन्नयन संस्कार 
                                         गर्भ के चौथे ,छठे या आठवे मास में यह संस्कार किया जाता हैं। इसका उद्देश्य गर्भ की शुद्धि होता है। 
                  4 .जातकर्म संस्कार 
                                          जातकर्म संस्कार बच्चे के जन्म पर किया जाता है। यह संस्कार बच्चे के नये घर में स्वागत का प्रतीक हैं। इस संस्कार में पिता बच्चे को शहद चखाता है बच्चे की लम्बे और सुखद जीवन  लिए प्रार्थना करता हैं। 
                  5 .नामकरण संस्कार 
                                            नामकरण संस्कार से आयु तथा तेज की वृद्धि होती है। यह संस्कार शिशु के जन्मोपरांत दस दिन के सूतक की निवृति पर ही किया जाता हैं शिशु का नामकरण किया जाता हैं घर के सभी सदस्य बच्चे के कान में नाम  उच्चारण किया जाता है। 
                   6 .निष्क्रमण संस्कार 
                                                  बच्चे को जब घर से बाहर निकाला जाता है उसको पंचभूतों के अधिष्ठाता देवो का अनुभव एवं स्पर्श कराया जाता है जिसे निष्क्रमण संस्कार कहते है। मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों पृथ्वी ,जल,आकाश ,वायु ,तथा अग्नि से बना है। पंचभूतों के दर्शन से बच्चे का शरीर सशक्त और मजबूत होता है। 
                    7 .अन्नप्राशन संस्कार 
                                                  जब बालक 6-8 माह का होता है तो उसे पेय पदार्थ दूध आदि का सेवन कराया जाता है आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः  अर्थात शुद्ध आहार से सतोगुण की वृद्धि होती है। 
                     8 मुंडन संस्कार 
                                           इस संस्कार में बालक का बाल (केश) प्रथम बार उस्तरे से उतरा जाता है। 
तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय। अर्थात चूड़ाकर्म से बालक दीर्घयु  प्राप्त है। 
जन्मोपरांत प्रथम या तीसरे वर्ष की समाप्ति से पूर्व यह संस्कार कराया जाता है। मुंडन किसी धर्मस्थान ,तीर्थस्थल या देवालय पर कराया जाता है। 
                       9 कर्णवेध संस्कार 
                                               भद्र कर्णेभिः श्रणुयाम देवा भद्रं  पश्येमाक्षभिर्यजत्राः   कर्णवेध संस्कार 3 या 5 आदि विषम वर्षो में किया जाता है। शुभ मुहूर्त में पवित्र स्थान पर बैठकर पूजा अर्चना उपरांत सूर्यभिमुख होकर शिशु के दोनों कानो को एक-एक करके छेद के बाद कुण्डल पहनाया जाता है 
                      10.विद्यारम्भ संस्कार 
                                                 विद्यारम्भ संस्कार बालक के पाँच वर्ष होने के बाद श्री गणेश और देवी सरस्वती को नमन करके प्रारम्भ कराया जाता है। विद्यारम्भ संस्कार से बालक शिक्षित होता है और माता पिता एवं गुरुजनो का आदर सम्मान करता है 
                      11 .उपनयन संस्कार 
                                                    उपनयन संस्कार या यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही बालक को धार्मिक कार्य अथवा अनुष्ठान करने का अधिकार प्राप्त होता है। मातुराग्राधिजनानं  द्वितीय  मौनिजबन्धने  अर्थात प्रथम जन्म माता के उदर से होता है और द्वितीय जन्म यज्ञोपवीत धारण से होता। 
                       12 .वेदारम्भ संस्कार 
                                                     हिन्दू धर्म दर्शन के अनुसार उपनयन संस्कार हो  के बाद ही विद्यार्थी को वेद पढ़ने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस संस्कार में वेद पारंगत गुरु शिष्य को वैदिक रीति से वेदो का पाठन प्रारम्भ करवाते है। 
                       13 .केशान्त संस्कार 
                                                    जैसा की नाम से स्पष्ट हो रहा है इस संस्कार में जब बालक वेद पढ़ने जाता था तो उसे अपने नाख़ून ,बाल ,दाढ़ी बनाने  अनुमति नहीं होती थी वेद पठन के बाद बालक को शुभ मुहूर्त पर आचार्य के अनुमति से केशान्त संस्कार किया जाता हैं। 
                        14 .समावर्तन संस्कार 
                                                        युवा सुवासः परिवीत आगात  सु श्रेयांन  भक्ति जायमानः। 
                                                         त  धिरास ः  कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो  उ मनसा देवयन्तः। 
अर्थात युवा पुरुष उत्तम वस्त्रो को धारण किए हुए ,सब विद्या ,से प्रकाशित ब्रह्मचारी के रूप से निकल जब गृहाश्रम में आता है तब वह प्रसिद्ध हो कर श्रेय ,मंगलकारी शोभायुक्त होता हैं। उसे धीर ,बुद्धिमान विद्वान् अच्छे ध्यान मन से विद्या प्रकाश की कामना करते हुए ऊंचे पद पर बैठाते है। 
                        15 .विवाह संस्कार 
                                                  भविष्य पुराण कहता  है कि विवाह संस्कार सात पूर्वजो व् सात वंशजो को नरक भोग से बचा लेता हैं। विवाह संस्कार से सन्तानोत्पादन कर परिवार और समाज नींव डालता है। 
                                                     दश पूर्वान परान्वंश्यान  आत्मनं चैकविंशकम। 
                                                      ब्राहीपुत्रः सुकृतकृन मोचये देनसः पितृन ः। 
                         16 .अंत्येष्टि संस्कार 
                                                      वायुरनिलममृतमथेदं  भस्भांतं शरीरम। 
                                                      ओम क्रतो स्मर ,क्लिबे स्मर ,कृतं स्मर। 
  अर्थात हे कर्मशील जीव तू शरीर छूटते समय परमात्मा के श्रेष्ठ व् मुख्य नाम ॐ का स्मरण कर। प्रभु को याद कर। शरीर में आने जाने वाली वायु अमृत है परन्तु भौतिक शरीर भस्म पर्यन्त है। भस्मांत होने वाली है। ..

Wednesday, 15 July 2020

सोलह महादान एवम दस मेरु दान व दस धेनु दान


सोलह महादानो  एवम दस महादान व दस धेनु दान का वर्णन आग्नेय पुराण के महादानों का वर्णन नामक अध्याय में किया गया है 
    सोलह महादान 
  1. तुलापुरुष दान 
  2. हिरण्यगर्भ दान 
  3. ब्रम्हाण्ड दान 
  4. कल्पवृक्ष दान 
  5. सहस्र गोदान 
  6. स्वर्णमयी कामधेनु दान 
  7. स्वर्णमय अश्व दान 
  8. स्वर्णमय अश्व रथ दान 
  9. स्वर्णमय हस्तिरथ दान 
  10. हल दान 
  11. भूमिदान 
  12. विश्वचक्र दान 
  13. कल्पलता दान 
  14. सप्तसमुद्र दान 
  15. रत्नधेनु दान 
  16. जलपूर्ण कुम्भ दान                                                                                                                                                                                             दस मेरुदान  (पर्वत )
  1. धान्यमेरु  
  2. लवणाचल 
  3. गुड़ पर्वत 
  4. स्वर्ण मेरु 
  5. तिल पर्वत 
  6. कार्पास पर्वत (रुई )
  7. घृताचल 
  8. रजत पर्वत 
  9. शर्कराचल 

                                                                             दस धेनुदान   
  1. गुड़धेनु 
  2. घृतधेनु 
  3. तिलधेनु 
  4. जलधेनु 
  5. क्षीरधेनु 
  6. मधुधेनु 
  7. शर्कराधेनु 
  8. दधिधेनु 
  9. रसधेनु 
  10. कृष्णाजिनधेनु                                                                      

Tuesday, 14 July 2020

वाराणसी महात्म्य(VARANASI GREATNESS)

अग्नि पुराण के 12 वा अध्याय में कहा गया है कि वाराणसी परम उत्तम तीर्थ है। जो वहां श्री हरि नाम लेते हुए निवास करते हैं ,उन सबको वह भोग और मोक्ष प्रदान करता है। महादेव जी ने पार्वती से उसका महात्मा इस प्रकार बतलाया है ।।
महादेव जी बोले- गौरी इस क्षेत्र को मैंने कभी मुुक्त नहीं किया- सदा ही वहाँ निवास किया है ।इसलिए यह अविमुक्त कहलाता है ।अविमुक्तत-क्षेत्र मेंं किया हुआ जप, तप,होम और दान अक्षय होता है ।पत्थर से दोनों पैर तोड़कर बैठ रहेे ।परंतु काशी कभी ना छोड़े ।हरिश्चंद्र,आम्रातकेश्वर,  जपयेश्वर,श्रीपर्वत,महालय,भृगु,चंडेश्वर,और केदारतीर्थ-
ये आठ अविमुक्त क्षेत्र में परम गोपनीय तीर्थ है। मेरा अविमुक्त-क्षेत्र सब गोपनीयों में भी परम गोपनीय है। वह दो योजन लंबा और आधा योजन चौड़ा है।'वरणा'और 'नासी'(असी)-इन दो नदियों के बीच मे वाराणसीपुरी है।
इसमें स्नान, जप,होम,मृत्यु,देवपूजन, श्राद्ध, दान और निवास जो कुछ होता है,वह सब भोग एवं मोक्ष प्रदान करता है।

The 12th chapter of Agni Purana states that Varanasi is the ultimate pilgrimage. He offers BHOGA and MOKSHA to all those who reside there, taking the name Shri Hari. Mahadev Ji has told Parvati her Mahatma in this way.
Mahadev Ji said - Gauri I have never liberated this area - I have always resided there. That is why it is called free. The chanting, austerity, home and charity done in the free zone is renewable. Breaking both feet from the stone and sitting Stay. But never leave Kashi.
Harishchandra, Amratakeshwar, Japayeshwar, Sriparvat, Mahalaya, Bhrigu, Chandeshwar, and Kedartirtha- It is the ultimate secret pilgrimage in the eight free zones(AVIMUKTA). My free zone(AVIMUKTA) is the most secretive among all secretaries. It is two yojana long and half yojana wide. 'VARUNA' and 'NASI' (Asi) - In between these two rivers is Varanasipuri. In this, bathing, chanting, home, death, devotion, shraddh, donation and abode, everything that is offered, provides enjoyment and salvation.
HAR HAR MAHADEV

सोमवार व्रत

 माता पार्वती ने भगवान भोलेनाथ से लोक कल्याणार्थ सोमवार व्रत के महात्मय कथा सुनाने का निवेदन किया ।तब देवाधिदेव महादेव जी ने माता पार्वती को सोमवार व्रत के महात्म्य सुनाते हुए कहा ।हे देवी !कैलाश पर्वत के उत्तर में निषध पर्वत के शिखर पर स्वयंप्रभा नाम की अत्यंत रमणीक एक विशाल पुरी है। इस पूरी में विभिन्न प्रकार के वृक्षो पर कोयल,मयूर,पपीहा आदि चिड़ियां मधुर कलरव करती रहती है। वहाँ धनवाहन नामक एक गंधर्वराज रहते थे। अपनी पत्नी के साथ वह वहाँ दिव्य भोगो का उपभोग करते थे। उनके समूर्ण परिवार में आठ पुत्र और एक कन्या थी। कन्या का नाम गन्धर्वसेना रखा गया। वह अत्यंत सुंदर थी। कन्या को अपने सौंदर्य का बड़ा अभिमान था। अपने रूप सौंदर्य के सामने किसी को कुछ भी न समझने वाली गन्धर्वसेना अक्सर कहा करती थी कि संसार मे कोई देवता अथवा दानव मेरे रूप के करोड़वें अंश के बराबर भी नहीं है।
एक दिन आकाशचारी एक गणनायक ने जब गन्धर्वसेना कि बात सुनी तो अहंकार में भरी हुई उस कन्या को उसने श्राप दे दिया-तुम रूप के अभिमान में गंधर्वो और देवताओं का अपमान करती हो अतः तुम्हारा शरीर कोढ़ ग्रस्त हो जाएगा। यह श्राप सुनकर वह कन्या भयभीत हो गई और साष्टांग प्रणाम कर क्षमा की प्रार्थना करने लगी।
उसके विनय से गणनायक को दया आ गई और उसने कहा-यह तुम्हारे घमंड का फल है,इसलिए घमण्ड कभी नही करना चाहिए।हिमालय पर्वत के वन में गोश्रृंग नामक एक परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि रहते है।वे तुम्हारा कल्याण करेंगे। ऐसा कहकर गणनायक चला गया।
गन्धर्वसेना उस सुंदर वन का परित्याग कर माता-पिता के समीप आई और कोढ़ी होने का सम्पूर्ण वृतांत कह सुनाया। इससे उसके माता पिता शोक संतप्त हो उठे और पुत्री को साथ लेकर हिमालय पर्वत के वन में गये।
वहाँ उन्होंने गोश्रृंग ऋषि का दर्शन करके स्तुति अभिवादन किया तथा उनके सामने ही भूमि पर बैठ गए। ऋषि के पूछने पर गन्धर्वराज ने कहा- 'मुनिश्रेष्ठ! मेरी कन्या का शरीर कुष्ठ रोग से पीड़ित है। जिससे उसे मुक्ति मिले ,वह उपाय बताने की कृपा करें।
गोश्रृंग जी बोले-भारतवर्ष में समुन्द्र के निकट प्रभास(सोमनाथ) क्षेत्र में सर्वदेववन्दित द्वादश ज्योतिर्लिंगो में से एक प्रसिद्ध भगवान सोमनाथ जी का स्वरूप विराजमान है। वहां जाकर मनुष्यों को एक समय का भोजन करते हुए सब रोगों के नाश के लिए सोमनाथ भगवान की पूजा करनी चाहिए। तुम सोमवार के व्रत से भगवान शंकर की आराधना करो,ऐसा करने से तुम्हारी कन्या का रोग दूर हो जाएगा।
मुनिश्रेष्ठ का वचन सुनकर गंधर्वराज ने वहां जाने का निश्चय किया ।गन्धर्वराज अपनी पत्नी के साथ सभी सामग्री लेकर प्रभास (सोमनाथजी)क्षेत्र गए।वे सोमनाथ भगवान का दर्शन करके कृतकृत्य को गए।व्रत के प्रभाव से सोमनाथ जी प्रसन्न होकर कन्या के कुष्ठ रोग को दूर करके सभी कामनाओ को पूर्ण करने वाला गंधर्व देश का राज्य तथा अपनी भक्ति दी।

Markandeya Mahadev Shrine

Markandeya Mahadev Shrine
There was a celibate named Mrigashrringa. He was married to Suvrita. A son was born to Mrigashrunga and Suvrata. His sons always scratched their bodies. Hence Mrigashrunga named him Mrikandu. Mrikandu had all the best qualities. His body was inhabited by Tej. By staying near the father, he studied the Vedas. According to the father's orders, he married Mridgul Muni's daughter Marudvati.
Birth of sage Markandeya
Mrkandu ji's married life was being passed peacefully. But no child was born to their home for a long time. For this reason, he and his wife meditated hard. He meditated and pleased Lord Shiva. Lord Shiva told the sage that, "O Muni, we are pleased with your austerity. Do you ask for a boon"? Then the sage Mrikandu said, "Lord, if you are really pleased with my penance, grant me a son as a child".
Bhagwan Shankar then said to Muni Mrkandu, "O Muni, you want a son with a long lifespan. Or do you want a talented son of sixteen years of age? " Muni said on this, "God, I want a son who is mine of virtues and possesses all kinds of knowledge, even if he is young." Lord Shankar blessed him with a son and became impotent. In due course of time, a child was born in the house of Mahamuni Mrkandu and Marudvati who later became famous as the sage Markandeya.Mahamuni Mrkandu gave all kinds of education to Markandeya. Maharishi Markandeya was an obedient son. Fifteen years passed while living with parents. When the sixteenth year began, the parents started feeling depressed. The son many times tried to find out the reason for his sadness from them. One day Maharishi Markandeya stubbornly insisted, then Mahamuni Mrkandu told that Bhagwan Shankar has given you only sixteen years of age and it is going to be completed. I am mourning for this reason.
After listening to the sage Shri Markandeshwar Mahadev, Markandeya Rishi told his father that you should not worry, I will convince Shankar ji and postpone my death. After this they went away from home to a forest. By establishing a Shivalinga there, they started worshiping methodically. Kaal arrived at a certain time Maharishi asked for some time by saying that he was praising Shankar ji right now. Wait until they are done. When Kaal refused to do so, Markandeya Rishi Ji protested.When Kaal tried to wipe him, he clung to Shivling. Lord Shiva appeared there amidst all this. He kicked in Kaal's chest. After that, after getting permission from the death god Shiva, he left. Seeing the reverence and faith of the sage Markandeya, Bhagwan Shankar gave him the boon to live for many kalpas. After receiving the boon of immortality, Maharishi came back to his parents at the ashram and after staying for a few days with them, they wandered on the earth and reached the people glorifying the Lord.Shri Markandeshwar Temple Complex is located near National Highway No. 31 on the banks of Dharmakshetra Ganga Gomti Sangam.
Har Har mahadev